Saturday, January 2, 2010

हम ठाकरे नहीं हो सकते, लेकिन....

जी हां हम आतंकी नहीं हो सकते.. हम ठाकरे नहीं हो सकते..पर हमें जरूरत है सबक लेने की कि आखिर कैसे हम आगे बढ़ें... ये प्रामाणिक है कि उत्तराखण्ड हमारी जन्मभूमि है लेकिन इस आधार पर बाहरी लोगों से परहेज़ करना हमारी संस्कृति में नहीं..पर हमें उनसे लेनी होगी सीख.. उनसे सीखना होगा आगे बढ़ना... उनसे सीखना होगा वो जो हममें नहीं...मैने देखा है.. महसूस किया है पिछले कुछ सालों में कि उत्तराखण्ड के हर छोटे बड़े शहरों में बाहर के लोगों ने आकर अपना बसेरा बसाया है... यहां न केवल वो रहना पसंद कर रहे हैं बल्कि उन्हें यहां अपने व्यावसायिक हित भी दिखाई दे रहे हैं.. ज़ाहिर है ये उनकी सोच का नतीजा है.. हमारे सामने दो तरह की समस्यायें हैं.. पहली ये कि हम में से अधिकांश लोग वित्तीय रुप से सक्षम नहीं हैं.. और उससे बड़ी समस्या ये कि हममें से अधिकतर के पास अपने भविष्य के प्रति वो सोच भी नहीं जो आने वाले कल को बेहतर बना सके..हो सकता है ये मेरा अपना कैलकुलेशन हो लेकिन कुछ हद तक ऐसा है भी..ये स्थिति ख़तरनाक़ होने के बावजूद मैं किसी को इसके लिए दोषी नहीं मानता.. क्योंकि इसके पीछे हमारी संतुष्टि की मानसिकता है.. जो एक तरह से आदर्श तो मानी जा सकती है लेकिन सच्चाई ये भी है कि इससे ज़िंदगी बेहतर नहीं हो सकती है..उसके लिए हमें कुछ सकारात्मक सोचना ही होगा अपनी-अपनी हैसियत और अपनी-अपनी पहुंच के मुताबिक.. हमें सोचना होगा कि कैसे हम किसी को नुकसान पहुंचाए बिना खुद को और मजबूत बना सकते हैं ठाकरे जैसी की कुत्सित मानसिकता पनपने देना बहुत आसान है.. और इसी की वो राजनीति भी कर रहे हैं लेकिन .. क्या हम इस बढ़ती प्रतिस्पर्धा से कुछ सीख नहीं सकते.. क्या हम खुद से ये नहीं कर सकते कि बस अब बहुत हुआ.. अब हम भी आगे बढ़ेंगे.. बस हमें उठ जागने की ज़रूरत है.. देखना ये स्थिति हमें जुझारू होना सिखाएगी और हम आगे बहुत ऊंचा मुकाम बना पाएंगे..

Tuesday, November 10, 2009

आखिर कब हम होंगे प्रोफेशनल

पहाड़... मेरा देश...मेरी मिट्टी..ताजी आबो-हवा... स्वच्छ वातावरण... भले लोग... थोड़े से संतुष्टि की मानसिकता... ऐसे लोग जिनकी चतुराई में भी भोलापन है... जिनके गुस्से में भी गरिमा होती है... वाकई ये तस्वीर है पहाड़, की जो उससे अलग होकर मैं महसूस करता हूं.... लेकिन हम बढ़ रहे हैं... आगे बहुत आगे... हममें से ही कुछ ऊंचाई छू रहे हैं... लेकिन जो नहीं बढ़ पा रहे हैं वो ?... इतना सोचने का शायद वक्त नहीं हमारे पास... पर क्यों नहीं सोचते हम, मुट्ठी भर ही तो हैं हम... एक चोटी से आवाज दोगे सारी घाटी सुन लेगी... जब सारे आवाज़ देंगे तो प्रदेश भी इकट्ठा हो जाएगा...बहुत आसान तो नहीं लेकिन नामुमकिन भी नहीं है ये... बात है आगे बढ़ने की तो यहां इसका सीधा मतलब है आर्थिक तौर पर सक्षम बनने से.. ज़ाहिर है हमारे पास आय के और अच्छी आय के पर्याप्त साधन नहीं हैं... और ना ही अभी तक की सरकारें... इस ओर कोई ख़ास ध्यान देने के मूड में दिखाई देती हैं... ऐसे में हमें चाहिए की सीमित साधनों में ही सही हमें कोशिश करनी होगी.. और इन कोशिशों में अगर कोई कमी है तो वो है प्रोफेशनेलिज़्म की... ज़ाहिर तौर पर हमें अब ये सोचना होगा कि कैसे हम बाकी दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं...

हमें दुकानदार की मानसिकता छोड़ मेज़बान बनना होगा.. हमें उन्हें महज़ पैकेट बंद चिप्स नहीं बेचने... हमें उन्हें अपनी सास्कृतिक विरासत भी दिखानी होगी...बताना होगा की सांस्कृतिक तौर पर कितने सम्पन्न हैं हम.. प्रकृति का कितना सौंदर्य है हमारे पास..

उत्तराखण्ड
देवभूमि है और पर्यटन यहां आमदनी का एक प्रमुख साधन है.. लेकिन क्या हम इस पर्यटन को उद्योग का दर्ज़ा दे पाए हैं.. हम लोग बस इसे एक सीज़न के तौर पर देखते हैं.. जिसमें कुछ दुकानदारों को आम दिनों की तुलना में कुछ ज़्यादा आमदनी हो जाती है.. और कुछ रेस्टहाउस कुछ महीनों के लिए चल पड़ते हैं.. आम लोगों को तो इससे भी फर्क नहीं पड़ता.. उन्हें तो बस कुछ नए चेहरे दिखाई दे जाते हैं.. क्या हमें इसके इतर नहीं सोचना चाहिए.. ? क्या हमारी सरकार के पास पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए और योजनाएं नहीं होनी चाहिए..? क्या स्थानीय निकायों को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए.. हम लोगों को भी सोचना होगा कि आखिर कैसे हम पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं.. हमें दुकानदार की मानसिकता छोड़ मेज़बान बनना होगा.. हमें उन्हें महज़ पैकेट बंद चिप्स नहीं बेचने... हमें उन्हें अपनी सास्कृतिक विरासत भी दिखानी होगी...बताना होगा की सांस्कृतिक तौर पर कितने सम्पन्न हैं हम.. प्रकृति का कितना सौंदर्य है हमारे पास..